रायबरेली में अखिलेश यादव से कार्यकर्ताओं रख दी ये मांग
यूपी में विधानसभा चुनाव होने में 3 महीने से भी कम समय बाकी हैं। सत्ताधारी भाजपा समेत मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी भी तैयारियों को अंतिम रुप देने में लग गई है।
यूपी में विधानसभा चुनाव होने में 3 महीने से भी कम समय बाकी हैं। सत्ताधारी भाजपा समेत मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी भी तैयारियों को अंतिम रुप देने में लग गई है। एक ओर बीजेपी में कोरोना की दूसरी लहर के ठहरने के साथ ही लखनऊ, दिल्ली से लेकर नागपुर तक घमासान मच चुका है।
सपा और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव भी सक्रिय हो चुके हैं। पिछले दो चुनावों में मिली सबक के बाद वो भी कदम फूंक फूंक कर रख रहे हैं। दो चुनावों में दो बड़ी पार्टियां के साथ असफल गठबंधन करने के बाद अखिलेश यादव अबकी बार कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं है। रणनीति तय हो चुकी है, बस उसके मुताबिक चुनावी बिसात पर गोटी बिछाने की तैयारी है।
यूपी की भाजपा सरकार पर लगातार हमलावर सपा मुखिया अखिलेश यादव कांग्रेस और बसपा से गठबंधन के असफल प्रयोग भी कर चुके हैं। ऐसे में अब वह अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने में लगे हैं। दरअसल सपा के पास यादव-मुस्लिम का मजबूत वोटबैंक उसी तरह है, जैसे मायावती के पास मुस्लिम-जाटव वोट हुआ करता था। ऐसे में अब सपा इसी सोशल इंजीनियरिंग के सहारे अपनी जीत पक्का करना चाहती है।अखिलेश यादव ने 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ, लेकिन उसे दो-दो बार सबक मिल चुका है। अब पार्टी ऐसी सियासी गलती नहीं दोहराना चाहेगी। वह बड़े दलों की बजाए जाति आधारित छोटी-छोटी पार्टियों से जरूर तालमेल करना चाहती है, जो कि बीजेपी की भी स्ट्रैटजी रही है। पहले जयंत फिर राजभर के साथ मिलकर स्ट्रैटजी को इंप्लीमेंट भी कर रहे हैं….
अगर समाजवादी पार्टी के सियासी समीकरणों को देखें तो पार्टी 2017 के मुकाबले काफी बैलेंस दिख रही है…. पार्टी में एकता वापस आती दिख रही है. चाचा शिवपाल यादव 2017 की तरह पार्टी को नुकसान पहुंचाने की कोशिश में नहीं हैं, न ही अखिलेश यादव चाचा को परेशान करना चाहते हैं। ऐसे में चाचा भतीजे का एक साथ आ जाना भी समाजवादी पार्टी का सत्ता में आने के जैसा है।
बाकी पार्टियों की बात करें तो बहुजन समाज पार्टी आंतरिक परेशानियों से ही जूझ रही है, इस दौरान सपा मुसलमानों को यह संकेत देने पर विचार कर रही है बसपा, बीजेपी को हराने की स्थिति में नहीं है। औवेसी अपनी मोजूदगी दर्ज कराने में भी तक असफल रहे हैं। ये सोशल इंजिनियरिंग सपा के जीत हार का समीकरण तय कर सकती है।
बिना सोशल इंजीनियरिंग के यूपी की राजनिति कुछ नहीं है, इस समय यूपी की राजनिति में बीजेपी के ठाकुरवाद ने ब्राहम्णों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। बीजेपी ब्राह्मणों को साधने में लगी है लेकिन अभी तक नाकाम रही है…..एक समय बसपा में ब्राह्मणों का वर्चस्व हुआ करता था लेकिन आज बसपा और मायावती दोनों हासिए पर हैं…ऐसे में ब्राह्मणों का झुकाव भी सपा की तरफ हो रहा है जो सपा के लिए जीत की सीढ़ी साबित हो सकती है…..इस बीच कई ब्राह्मण नेता इसबार सपा साइकिल की सवारी कर रहे हैं। सपा सूत्रों के मुताबिक इस बार विधानसभा चुनाव में अच्छी संख्या में ब्राह्मण नेताओं को पार्टी प्रत्याशी बनाया जा सकता है इसका संकेत सपा ने हरिशंकर तिवारी को अपने पाले में करके दे भी दिया है।
चुनावी गणित देखें तो अखिलेश ने सबसे बढ़िया कोई समीकरण साधा है तो वो है बड़ी पार्टियों के साथ गठबंधन के बजाए खुद की ताकत पर काम करने और जातिवाद के समीकरणों को सही बैठाने के लिए छोटी पार्टियों के साथ आने का फैसला किया है. पार्टी को लगता है कि 2019 में सपा को वोट करने वाले बसपा के अहम वोटर 2022 में फिर सपा के साथ आ सकते हैं.
कोरोना महामारी के प्रबंधन में योगी सरकार पूरी तरह विफल रही है….ऐसे में अगर सपा जनता की दुखती नस पकड़ लिया है..और ये समाकरण अगले 2 महीने तक रह गए तो शायद 2022 में एक बार फिर अखिलेश यादव सत्ता होंगे।
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