जिसका कोई नहीं उसके वारिस हैं यह मुस्लिम समुदाय के नौजवान , करते हैं हर एक की मदद!
पद्मश्री शफीक चचा के पद चिंहो पर चलकर साल भर में करीब 50-60 लाशों को करा चुके हैं दफन,लोगो से पैसा जुटाकर कब्र खोदने से लेकर कफन आदि मांगते हुए करते हैं ये नेक कार्य!
खबर सुल्तानपुर से है जहाँ आज अयोध्या के पद्मश्री शफीक चचा के पद चिंहो पर चलकर साल भर में करीब 50-60 लाशों को करा चुके हैं दफन,लोगो से पैसा जुटाकर कब्र खोदने से लेकर कफन आदि मांगते हुए करते हैं ये नेक कार्य!
बताते चले की “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।” मशहूर शायर (कवि) मजरूह सुल्तानपुरी की इन पंक्तियों को उनके ही गृह जनपद के रहने वाले चचा रफीक अमली जामा पहना रहे हैं। अयोध्या जिले के पद्मश्री शरीफ चचा की तरह रफीक ने भी साल 1983 से लावारिस लाशों को दफ्न करने की एक पहल शुरू किया था। आज एक्सीडेंट के चलते वो तो बिस्तर पर हैं पर शहर के कई मुस्लिम युवाओं ने उनकी परंपरा को अपने जीवन का अंग बना लिया है।
तो वही सत्तर साल से ऊपर की उम्र वाले शहर के घरहां मोहल्ले के निवासी रफीक चचा का कुछ साल पहले एक्सीडेंट हो गया था। उनका इलाज चल रहा है। अब उनका बेटा सिकंदर बाप के नक्शे कदम पर चल निकला है। कोई मुस्लिम व्यक्ति लावारिस अवस्था में मर भर जाए। उसके कफन-दफन से लेकर उसके जनाजे की नमाज के लिए मौलवी तक का प्रबंध वो करता है। हालांकि यह काम सिकंदर अकेला नहीं करता, बल्कि वो होनहार है उसने अपने साथियों में यह बात शेयर किया। और देखते ही देखते करीब दो दर्जन युवा मृतक को (ग़ुस्ल) नहलाने से लेकर कफन काटने,पहनाने और जनाजे की नमाज पढ़ने में आगे-आगे रहते हैं।
साथ ही साथ अवगत कराते चले की इनमें एक नाम है रजा हुसैन का, जिन्हें प्यार से लोग मामा कहकर पुकारते हैं।पोस्टमार्टम हाउस से कॉल आ जाए कि किसी अज्ञात मुस्लिम व्यक्ति की लाश मिली है। मामा पोस्टमार्टम हाउस पहुंचते हैं, पुलिस की निगरानी में लाश को लेकर घरहां स्थित ईदगाह के पास लेकर आते हैं। यहां आम मुसलमानों की तरह लावारिस को भी यह (ग़ुस्ल) नहलाते हैं,शराफतउल्ला खान बताते हैं कि हमारे रफीक भाई इस काम को 1983 से कर रहे हैं। जो भी लावारिस लाश हम लोगों को मिलती है उसको मुस्लिम रीति-रिवाज के हिसाब से दफ़न करते हैं। अब तक कई सौ डेड बॉडी को दफन किया जा चुका है।कफन से लेकर कब्र खोदने तक का पैसा लगता है जिसे युवा अपनी पॉकेट मनी और ईद उल फितर और ईदुल अजहा पर चंदा इकट्ठा करके करते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जब यह काम शुरू हुआ था तब दो-तीन लोग होते थे। दो लोग जनाजे को आगे से कांधा देते तो पीछे से एक आदमी दोनों ओर से कांधा देता था।
इतना ही नहीं डिहवा निवासी मोहम्मद खुर्शीद आलम बताते हैं कि शनिवार को एक लावारिस लाश लंभुआ इलाके से आई थी। उन्होंने बताया कि 18 मार्च को एक नौजवान नदी में डूब गया था, चार दिन बाद लाश नदी में मिली तो घर वालों ने पहचानने से इंकार कर दिया। आज जब लाश आई तो उसकी स्थिति बड़ी दयनीय थी। लेकिन हम लोगो ने सब किया। दफ्न आदि करने के बाद बाकायदा फातेहा पढ़कर अजान तक दी गई। उन्होंने यह भी बताया कि अमेठी जिले तक से यहां पोस्टमार्टम में आने वाली लाश यहां आती है, 20 मार्च को ही जगदीशपुर से एक लावारिस लाश आई थी। खुर्शीद ने यह भी बताया कि हर महीने करीब 4 से 5 लाशें आ जाती हैं। इस तरह साल में 50-60 लाशों को हम लोग हर साल दफ्न करते हैं। अब तो बाकायदा ईदगाह के पास कब्रिस्तान के अंदर एक साईड को लावारिस लाशों के लिए ही स्थान दिया गया है।
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