जालौन के बीहड़ों में बसा ऐसा मंदिर, जहां आस्था के आगे डाकू भी झुकाते थे अपना सिर

दो-तीन दशकों से डांकुओ का साम्राज्य खत्म होने से अब लोग मुक्त होकर दर्शन करने आ रहे है। नवरात्र के समय भक्तों की संख्या में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी हो जाती हैं।

जालौन : बुंदेलखंड के कई जिलों में दस्युओं का आतंक था। लेकिन वही दस्यु नवरात्र पर अपने आराध्य देवी की पूजा अर्चना भी किया करते थे। डाकुओं से जुड़ा हुआ ऐसा ही एक मंदिर जालौन के बीहड़ों में मौजूद है। जहां कभी आस्था के आगे डाकु भी अपना सिर झुकाते थे। इन बीहड़ो में कभी डांकुओ के गोलियों की तड़तड़ाहट गूंजती थीं। लेकिन आज वहां मंदिर के घंटो की आवाज सुनाई देती हैं। कोरोना की बंदिशें हटने के बाद जालौन के बीहड़ो में फिर से जालौन वाली माता के दर्शनो के लिये भीड़ उमड़ पड़ी है। पिछले कई दशकों तक जालौन सहित आस-पास के जनपदों इटावा,औरैया आदि में दस्युओं ने काफी हड़कंप मचा रखा था। ये मंदिर यमुना और चम्बल नदी के पास है जहां अधिकतर डाकू अपना अड्डा बनाते थे। दो-तीन दशकों से डांकुओ का साम्राज्य खत्म होने से अब लोग भय मुक्त होकर दर्शन करने आ रहे है। नवरात्र के समय भक्तों की संख्या में अच्छी खासी बढ़ोत्तरी हो जाती हैं।

दरअसल, बीहड़ के जंगलो में जिस डकैत ने भी अड्डा बनाया हो उसकी विशेषता रही है कि वह जालौन वाली माता के मंदिर में दर्शन करने के साथ ही घंटे भी चढ़ाता था। डकैत मलखान सिंह, पहलवान सिंह, निर्भय सिंह गुर्जर, फक्कड़ बाबा, फूलन देवी, लवली पाण्डेय, अरविन्द गुर्जर आदि लोग ऐसे डकैत थे। जो समय-समय पर इन मंदिरों में गुपचुप तरीके से माता के मंदिर पर माथा टेकने आते थे। लेकिन डाकूओं का अंत होने के बाद लोगों का रुझान इस मंदिर की तरफ बढ़ने लगा है और नवरात्र पर दूर-दराज इलाकों से लोग यहां पर माता के दरबार में मत्था टेकने आते हैं।

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इस मंदिर की विशेषता है कि यह द्वापर युग में पांडवो के द्वारा स्थापित किया गया था। तभी से इस का एक प्रमुख स्थान रहा है ये चंदेल राजाओं के समय खूब प्रसिद्ध हुआ। लेकिन डकैतो के कारण आजादी के बाद ये स्थान चम्बल का इलाका कहलाने लगा। डकैतों के डर से इस मंदिर में आम लोग आने से डरते थे। लेकिन पुलिस और एसटीएफ़ की सक्रियता के चलते डकैत मुठभेड़ के दौरान मारे जा चुके है और कुछ ने मारे जाने के डर से आत्म समर्पण कर दिया। जिसके चलते जालौन जनपद के बीहड़ अब डकैतों से मुक्त हो चुके है। जालौन वाली माता के दर्शन के लिए हजारों की संख्या में रोज श्रद्धालु बीहड़ मे स्थित मंदिर में दर्शन करने पहुंच रहे है।
यहां के स्थानीय निवासियों ने बताया कि यह मंदिर 1000 साल पुराना है। यहां पांडवो ने तपस्या की थी। महर्षि वेदव्यास द्वारा मंदिर की स्थापना की गयी थी। यहाँ डकैत आते थे लेकिन किसी को परेशान नहीं करते थे। हालांकि कई किस्से भी इस मंदिर से जुड़े हुए है। एक भक्त के मरे हुए बेटे के जिन्दा होने की बात की भी काफी चर्चा है। स्थानीय निवासी बताते है माँ भक्तो की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करती है भक्त यहाँ आकर समपन्न हो जाते है डकैतों के डर से यहां पहले लोग आते नहीं थे लेकिन इलाका दस्यु मुक्त होने बाद यहां मेले जैसा माहौल नजर आता है। डकैत किसी को परेशान नहीं करते थे ऐसा कोई डकैत नहीं हुआ जो यहाँ शीश झुकाने न आता हो। मंदिर के पुजारी ग्याप्रसाद ने बताया कि कौरव पांडवो के समय का ये मंदिर है। वेदव्यास जी ने इस मंदिर की स्थापना की थी। आज से 20 साल पहले ये डकैतों का मंदिर हुआ करता था। यहां सबकी मनोकमाएँ पूरी होती है। डकैतों से जनता को कभी कोई परेशानी नहीं हुई। डकैत किसी को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाते थे मंदिर में माँ को सजदा कर डकैत लौट जाते थे।

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