थप्पड़ मूवी रिव्यू: ये फ़िल्म नहीं ऐसा आईना है जिसे ज़रूर देखना चाहिए
जब इस फ़िल्म का ट्रेलर आया उस वक़्त मैं ये सोच रही थी कि अनुभव सिन्हा किस तरह अपनी फ़िल्म ‘ थप्पड़’ में इस बात से लोगों को कन्विन्स कर पाएँगे कि कोई भी अपने पार्ट्नर को एक थप्पड़ क्यूँ नहीं मार सकता, और अगर मार दिया है जो कि ग़लत है तो क्या ये इतनी बड़ी ग़लती है कि बात तलाक़ तक पहुँचे। यक़ीन मानिए फ़िल्म को देखकर आपको एहसास हो जाएगा कि एक थप्पड़ भी तलाक़ की वजह क्यूँ बन सकता है। ये फ़िल्म नहीं है आईना है जिसे हम सबको देखना चाहिए, ‘थप्पड़’ फ़िल्म आपको बेहतर इंसान भी बनाएगी।
ये कहानी है अमृता (तापसी पन्नू) की, जो एक हाउसवाइफ़ है, और ख़ुश है। वो अच्छी पत्नी अच्छी बहू बनने की पूरी कोशिश करती है इसमें कामयाब भी होती है, पति उससे प्यार भी करता है, दोनों यूएस शिफ़्ट होने वाले हैं, लेकिन ऑफ़िस पॉलिटिक्स से झल्लाया अमृता का पति एक दिन उसे भरी महफ़िल में थप्पड़ मार देता है। अमृता ये थप्पड़ बर्दाश्त नहीं कर पाती है, हर कोई उसे समझाने की कोशिश करता है, एक ही थप्पड़ है जाने दो वो बहुत प्यार करता है तुमसे। लेकिन वो नहीं मानती… आप सोच रहे हैं पति प्यार करता है, परेशानी और ग़ुस्से में अगर उससे हाथ उठ गया तो क्या हो गया माना कि उसने ग़लत किया लेकिन अब इतनी सी बात पर तलाक़ क्यूँ लेना? लेकिन जब आप पूरी फ़िल्म देखेंगे आपकी आँखों पर जमी धूल साफ़ होने लगेगी और आपको एहसास होगा कोई एक थप्पड़ भी क्यूँ नहीं मार सकता है।
एक्टिंग
अमृता के रोल में तापसी पन्नू ने शानदार काम किया है, अपने चेहरे और हाव भाव से वो बहुत कुछ कहती हैं, अमृता के पिता के रोल में कुमुद मिश्रा का काम बेहतरीन है। रत्ना पाठक फ़िल्म में अमृता की माँ के रोल में हैं और नैचरल ऐक्टिंग से वो भी दिल जीतने में कामयाब हुई हैं। गीतिका विद्या भी मज़बूत रोल में दिखी हैं, तनवी आज़मी भी अपने रोल में फ़िट हैं। दिया मिर्ज़ा में एक ग्रेस है, इस फ़िल्म में जब भी वो स्क्रीन पर आई हैं ख़ूबसूरती और क्लास के साथ आई हैं। माया और नाइला ग्रेवाल का काम भी बहुत अच्छा है।
अमृता के पति के रोल में पवैल गुलाटी ने अच्छा काम किया है, अपने इक्स्प्रेशन और अभिनय से वो फ़िल्म को विश्वसनीय बनाते हैं। पवैल का रोल कोई नेगेटिव रोल नहीं है, वो बीवी से प्यार करता है, मेहनती है… और सबके बारे में सोचता है। इसलिए अनुभव सिन्हा की और तारीफ़ करनी होगी कि वो इतनी अच्छी फ़िल्म बना पाए।कमियों की बात करे तो फ़िल्म थोड़ी सी लम्बी है जिसे क्रिस्पी किया जा सकता था, इंटरवल तक फ़िल्म थोड़ी सी स्लो है लेकिन इंटर्वल के बाद से फ़िल्म अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है।
क्यों देखें फिल्म
ये फ़िल्म कई जगह चोट करती है, आप ग़ौर करेंगे तो पाएँगे कि हमारी हर बात में हर सोच में पितृसत्ता इस क़दर घुसी है कि हमें एहसास ही नहीं होता है कि जिसे हम नॉर्मल समझ बैठे हैं वो नॉर्मल नहीं है। ये फ़िल्म उसी सोच पर चोट करती है। बिना कुछ सोचे आपको ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। और पुरुषों को ज़रूर ये फ़िल्म देखनी चाहिए उनके लिए जिससे वे प्यार करते हैं।
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