अगर आप भी साईं बाबा को नहीं मानते हैं हिंदू तो जान लें ये सच्चाई, कभी भी नहीं…
शिरडी वाले साईं बाबा को लेकर अगर आपके अंदर भी भ्रम है कि, वह हिंदू नहीं बल्कि मुसलमान थे तो आज हम आपको इस सच्चाई से अवगत कराएंगे. आप जिन भी तर्कों के साथ उन्हें मुस्लिम मानते हैं वो सारे तथ्य सिर्फ कहानियों और किस्सों को लेकर बनाए गए हैं.
शिरडी वाले साईं बाबा को लेकर अगर आपके अंदर भी भ्रम है कि, वह हिंदू नहीं बल्कि मुसलमान थे तो आज हम आपको इस सच्चाई से अवगत कराएंगे. आप जिन भी तर्कों के साथ उन्हें मुस्लिम मानते हैं वो सारे तथ्य सिर्फ कहानियों और किस्सों को लेकर बनाए गए हैं. असल में साईं बाबा के पहनावे और उनके रहन-सहन को लेकर लोगों का मानना है कि, वो मुस्लिम हैं लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है और उन्होंने एक हिंदू परिवार में जन्म लिया था. बचपन से लेकर युवावस्था तक कुछ मुस्लिमों का साथ जरुरू रहा था . लेकिन उन्होंने कभी मुस्लिम धर्म अपनाया नहीं. उन्होंने सभी धर्मों के बताए सही रास्तों पर चलते हुए विशाल आदर्शों को स्थापित किया.
साईं बाबा के हिंदू होने की सबसे बड़ी निशानी धूनी रमाना और कान के बिंधे होना था. धूनी सिर्फ शैव और नाथपंथी संत ही जलाते हैं जबकि कान छेदन सिर्फ नाथपंथियों में होता है.
सांई बाबा हर सप्ताह नाम कीर्तन का आयोजन करते थे जिसमें विट्ठल (कृष्ण) के भजन होते थे. बाबा कहते थे- ठाकुरनाथ की डंकपुरी, विट्ठल की पंढरी, रणछोड़ की द्वारिका यहीं तो है.
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जहां बाबा पहली बार लोगों को दिखे थे उस स्थान पर बाबा के गुरु का तप स्थान था। जब उस समाधि की खुदाई की गई तब वहां चार दीपक जल रहे थे। म्हालसापति तथा शिर्डी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे।
सांई के बारे में जानकार मानते हैं कि वे नाथ संप्रदाय का पालन करते थे। हाथ में पानी का कमंडल रखना, धूनी रमाना, हुक्का पीना, कान बिंधवाना और भिक्षा पर ही निर्भर रहना- ये नाथ संप्रदाय के साधुओं की निशानी हैं। नाथों में धूनी जलाना जरूरी होता है जबकि इस्लाम में आग हराम मानी गई है। सिर्फ इस एक कर्म से ही उनका नाथपंथी होना सिद्ध होता है।
हिन्दुओं में यह प्रथा प्रचलित है कि जब किसी मनुष्य का अंत काल निकट आ जाता है तो उसे धार्मिक ग्रंथ आदि पढ़कर सुनाए जाते हैं। मुख्य रूप से गीता सुनाए जाने का प्रचलन इसलिए है, क्योंकि वह वेदों का सार है और संक्षिप्त भी है।
जब बाबा को लगा कि अब जाने का समय आ गया है, तब उन्होंने श्री वझे को ‘रामविजय प्रकरण’ (श्री रामविजय कथासार) सुनाने की आज्ञा दी। श्री वझे ने एक सप्ताह प्रतिदिन आठों प्रहर पाठ सुनाया। बाद में लक्ष्मीबाई शिंदे को 9 सिक्के देने के पश्चात बाबा ने कहा कि मुझे मस्जिद में अब अच्छा नहीं लगता है इसलिए मुझे बूटी के पत्थरवाड़े में ले चलो, जहां मैं सुखपूर्वक रहूंगा। ये ही अंतिम शब्द उनके श्रीमुख से निकले।
महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांईं बाबा का जन्म हुआ था। सांईं के पिता का नाम गोविंद भाऊ और माता का नाम देवकी अम्मा है। कुछ लोग उनके पिता का नाम गंगाभाऊ बताते हैं और माता का नाम देवगिरि अम्मा। देवगिरि के पांच पुत्र थे। पहला पुत्र रघुपत भुसारी, दूसरा दादा भुसारी, तीसरा हरिबाबू भुसारी, चौथा अम्बादास भुसारी और पांचवें बालवंत भुसारी थे। सांईं बाबा गंगाभाऊ और देवकी के तीसरे नंबर के पुत्र थे। उनका नाम था हरिबाबू भुसारी।
साईं बाबा के माता-पिता के घर के पास ही एक मुस्लिम परिवार रहता था। उस परिवार के मुखिया का नाम चांद मिया था और उनकी पत्नी चांद बी थी। उन्हें कोई संतान नहीं थी। हरिबाबू अर्थात साईं उनके ही घर में अपना ज्यादा समय व्यतीत करते थे। चांद बी हरिबाबू को पुत्रवत ही मानती थीं।
इसके अलावा साईं बाबा के जीवन में एक चांद पाशा पाटिल का नाम भी आता है जो कि धूपखेड़ा के मुस्लिम जागीरदार थे। उन्हीं का घोड़ा गुम हो गया था तो साईं बाबा ने आवाज लगाकर उसे बुला लिया था। शिरडी आने के पहले साईं बाबा धूपखेड़ा इन्हीं चांद पाशा पाटिल के यहां पर ठहरे थे। वहीं से वे एक बारात में दूसरी बार शिरडी आए थे और फिर वहीं बस गए।
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