जानिए कैसे मिलता है अगला जन्म, पढ़िये रहस्यमय ज्ञान
हम सभी को इस जन्म में मनुष्य योनि मिली है, लेकिन जरूरी नहीं कि अगले जन्म में भी ऐसा ही हो। दरअसल, अगले जन्म में कौन-सी योनि मिलेगी, यह पूरी तरह के इस जन्म के कर्मों पर निर्भर करता है।
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निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक में श्रीकृष्ण द्वारा विश्वरूप दिखाए जाने के बाद भक्त, भक्ति और पुनर्जन्न की बातों का श्रीकृष्ण खुलासा करते हैं। अंत में अर्जुन से वे कहते हैं कि मेरा अंतिम उपदेश है कि ज्ञान, कर्म, ध्यान आदि को छोड़कर मेरी शरण में आजा।
अर्जुन पूछता है कि हे मधुसूदन! अब ये बताओं की मनुष्य अपने पुण्यों को किन-किन योनियों में और कहां भोगता है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन पुण्यवान मनुष्य अपने पुण्यों के द्वारा किन्नर, गंधर्व अथवा देवाताओं की योनियां धारण करके स्वर्गलोक में तब तक रहता है जब तक उसके पुण्य शून्य नहीं हो जाते। तब अर्जुन पूछता है अर्थात? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्थात ये कि प्राणी के हिसाब में जितने पुण्य कर्म होते हैं उतनी ही देर उसे स्वर्ग में रखा जाता है। जब पुण्यों के फल की अवधी समाप्त हो जाती है तो उसे फिर पृथ्वीलोक में आपस आना पड़ता है और मृत्युलोक में पुनर्जन्म धारण करना पड़ता है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि परंतु स्वर्ग लोक में मनुष्य के पुण्य क्यों समाप्त हो जाते हैं? वहां जब वह देव योनी में होता है तो वह अवश्य ही अच्छे कर्म करता होगा? उसे इन अच्छे कर्मों का पुण्य तो प्राप्त होता होगा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं अर्जुन उच्च योनी में देवता बनकर प्राणी जो अच्छे कर्म करता है या नीच योनी में जाकर प्राणी जो क्रूर कर्म करता है। उन कर्मों का उसे कोई फल नहीं मिलता। तब अर्जुन पूछता है क्यों? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं क्योंकि वह सब भोग योनियां हैं। वहां प्राणी केवल अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगता है। इन योनियों में किए हुए कर्मों का पुण्य अथवा पाप उसे नहीं लगता। हे पार्थ! केवल मनुष्य की योनी में ही किए हुए कर्मों का पाप या पुण्य होता है। क्योंकि यही एक कर्म योगी है?
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि इसका अर्थ ये हुआ कि यदि कोई पशु किसी की हत्या करे तो उसका पाप उसे नहीं लगेगा और यदि कोई मनुष्य किसी की अकारण हत्या करे तो पाप लगेगा? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि बिल्कुल ठीक। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि परंतु ये अंतर क्यों? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसलिए कि पृथ्वीलोक में समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो विवेकशील है। वह अच्छे और बुरे की पहचान रखता है। दूसरा कोई भी प्राणी ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए यदि कोई सांप किसी मनुष्य को अकारण ही डंस ले और वह मर जाए तो उस सांप को उसकी हत्या का पाप नहीं लगेगा। उसी तरह यदि कोई शेर किसी की हत्या कर देता है तो उसे भी इसका पाप नहीं लगेगा। अब बकरी का उदाहरण लो। बकरी किसी की हत्या नहीं करती। वह घासफूस खाती है। इसी कारण वह पुण्य की भागीदार नहीं बनती। पाप-पुण्य का लेखा-जोखा अर्थात प्रारब्ध केवल मनुष्य का बनता है। इसलिए मनुष्य जब अपने पाप और पुण्य भोग लेता है तो उसे फिर मनुष्य की योनी में भेज दिया जाता है।
तब अर्जुन पूछता है- अर्थात देवों की योनियों में जो मनुष्य होते हैं वो अपना सुख भोगकर स्वर्ग से भी लौट आते हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां और मनुष्य की योनी प्राप्त होने पर फिर कर्म करते हैं और इस तरह सदैव जन्म-मृत्यु का कष्ट भोगते रहते हैं। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे मधुसूदन क्या कोई ऐसा स्थान नहीं जहां से लौटकर आना ना पड़े? और जन्म-मरण का ये चक्र समाप्त हो जाए।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा स्थान केवल परमधाम है, अर्थात मेरा धाम। जहां पहुंचने के बाद किसी को लौटकर नहीं आना पड़ता, इसी को मोक्ष कहते हैं। हे अर्जुन! मनुष्य के जन्म का प्रधान उद्देश्य केवल मोक्ष प्राप्त करना होता है और यह मोक्ष केवल मनुष्य योनी द्वारा ही प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य के शरीर को मोक्ष का द्वार कहा जाता है। हे अर्जुन! मानव शरीर बड़ी मुश्किल से मिलता है। इसे यूं ही गवांना नहीं चाहिए। देवता भी मानव शरीर की आकांक्षा करते हैं परंतु मनुष्य की विडंबना यही है कि वह इस शरीर को अर्थात मोक्ष के अवसर को गंवाता रहता है। सारी आयु भोग विलासों में बिताता है। यहां तक की जब शरीर छूटने का समय आता है। तब भी वासना उसका पीछा नहीं छोड़ती। हे अर्जुन मृत्यु के समय जो वासना मनुष्य के मन में दृढ़ रहती है उसी वासना के अंतर्गत मनुष्य का दूसरा जन्म होता है।
यह सुनकर माता पार्वती कहती है कि प्रभु भगवान श्रीकृष्ण ये क्या कह रहे हैं कि मनुष्य के मन में जो वासना या जो अधूरी कामना होती है, मनुष्य का अगला जन्म उसी के अंतर्गत होता है। इसका क्या अर्थ है? यह सुनकर शिवजी कहते हैं कि देवी! इस समय भगवान श्रीकृष्ण ने जो कहा है वह अत्यंत गोपनीय है और गूढ़ ज्ञान है। बल्कि इसे एक गुप्त विद्या ही समझो। जिसे यह विद्या आ जाए उस प्राणी को बड़े ही सहज तरीके से मोक्ष मिल जाता है।
यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं कि मैं समझी नहीं भगवन कि ये गुप्त विद्या क्या है? यह सुनकर शिवजी कहते हैं कि देवी ये गुप्त विद्या मरने की विद्या है। प्रभु का कहना है कि प्राणी ने चाहे जैसा भी जीवन व्यतीत किया हो अंतकाल में यदि वह एकाग्र होकर केवल प्रभु का ध्यान करते हुए शरीर का त्याग करे तो वह सीधा परमात्मा के चरणों में पहुंच जाता है। जहां से उसे वापस नहीं आना होता है। अर्थात मृत्यु का क्षण बड़े महत्व का क्षण होता है। इस क्षण में प्राणी जिस बात का ध्यान करता है उसी के अनुसार उसे दूसरा जन्म प्राप्त होता है। यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं कि भगवन! इस गूढ़ बात को कोई उदाहरण देकर समझाने की कृपा करें।
यह सुनकर शिवजी कहते हैं कि देवी इस संबंध में महर्षि जड़भरत से अच्छा क्या उदाहण हो सकता है। जड़भरत एक ऋषि थे वे मुक्ति के द्वार तक पहुंच चुके थे। उन्होंने हिरण के एक बेसहारा बच्चे को पाल लिया था। उस बच्चे से उनका मन इतना लग गया था कि हर समय उन्हें हिरण के बच्चे की ही चिंता लगी रहती थी। यहां तक की अपनी मृत्यु के समय भी उनका ध्यान उसी बच्चे में था। बस अंतिम क्षण में भी चूंकि उनका ध्यान उस बच्चे की ओर ही था इसलिए अगले जन्म में उन्हें हिरण की योनी मिली थी। यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं कि प्रभु मृत्यु के समय का इतना महत्व क्यों होता है? शिवजी इसका भी जवाब देते हैं।
अर्जुन कहता हैं कि हे योगेश्वर! आपने मेरे कई प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। मैं एक प्रश्न और पूछता चाहता हूं कि सुना है कि मृत्यु के समय बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। चाहे वह मृत्यु युद्ध भूमि पर किसी शस्त्र के घातक घाव के कारण हो या अपने आप आए। क्या मृत्यु को आसन बनाने का कोई तरीका नहीं है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! प्रश्न मृत्यु को आसान बनाने का नहीं है बल्कि जन्म और मरण के चक्र से निकलकर मोक्ष प्राप्त करने का है। यदि मनुष्य मृत्यु के समय ये विधि अपनाएं जो मैं तुम्हें बता रहा हूं तो उसे तुरंत मोक्ष प्राप्त होगा और वह सीधा मेरे धाम को पहुंचेगा। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि वह गोपनीय विधि क्या है माधव?
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्राण त्यागते समय अपनी सभी इंद्रियों के द्वार को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तिष्क में स्थापित करके परमात्मा का स्मरण करते हुए ओम मंत्र का उच्चारण करें। तो वह मनुष्य जीवनभर कितना ही पापी क्यों ना रहा हो उसे मोक्ष अवश्य ही प्राप्त हो जाएगा।
फिर भगवान शिव माता पार्वती को ओम मंत्र की महीमा का महत्व बताते हैं और मनुष्य के शरीर के भीतर क्या है यह बताते हैं और बताते हैं कि इसका महत्व क्या है। वे बताते हैं कि मानव के शरीर में ही ब्रह्मांड समाया है और इसी के भीतर सप्तलोक हैं। मनुष्य ओम के द्वारा ही ब्रह्मलोक जा सकता है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे केशव! तुमने मेरे मन में ज्ञान की ज्योत जलाकर अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर दिया है। मेरे मन से मोह और भ्रम के सारे पर्दे उठ गए हैं। अब मैं अपने आपको तुम्हारी हर आज्ञा के अधीन करता हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम्हारे मुंह से यह बात सुनकर मुझे परम संतोष हुआ है। मैं प्रसन्न हूं अर्जुन, फिर भी तुम्हारे मन में अब भी कोई शंका या कोई आशंका या कोई प्रश्न हो तो… अर्जुन बीच में ही रोककर कहता है- नहीं माधव नहीं, अब इस मन में कोई शंका या कोई आशंका नहीं रही। मन में अब केवल विश्वास और श्रद्धा है। केशव! अब मु्झे कुछ नहीं जानना और कुछ नहीं पूछना। हां मुझे अपना शिष्य समझकर तुम्हें यदि कोई अंतिम उपदेश देना हो तो उस प्रसाद को पाने के लिए मैंने अपने मन की झोली फैला रखी है। मुझे जिसके योग्य समझो वहीं अंतिम उपदेश प्रदान करो।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैंने अब तक तुम्हें जो शिक्षा दी है वह सब भूल जाओ और मेरी शरण में केवल इस प्रकार आओ जैसे कांटों से लहूलुहान और कीचड़ से लथपथ एक बालक रोता-रोता भागकर अपनी मां की गोद में पनाह लेता है और जिस प्रकार मां उसके शरीर से सारा गंध और कीचड़ धोकर उसे फिर से एक फूल की तरह निर्मल और स्वच्छ बना देती है। हे अर्जुन! उसी प्रकार मैं तुम्हारे समस्त पापों का मैल धोकर तुम्हें पाप मुक्त कर दूंगा और समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्ति देकर तुम्हें शाश्वत शांति प्रदान करूंगा।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।66।।
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।।66।। जय श्रीकृष्णा।
उधर, संजय कहता है कि और महाराज अर्जुन ने अपना गांडिव फिर से उठा लिया है। अर्जुन ने अपना गांडिव खींचकर ऐसी टंकार की कि जैसे युद्ध की घोषणा कर रहा हो। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था। अब अर्जुन शस्त्र जरूर उठाएंगा। तब संजय कहता है कि महाराज एक विचित्र बात हो गई है। भगवान श्रीकृष्ण के गीता उपदेश को सुनने के लिए साक्षात समय भी ठहर गया था और सारी सेनाएं जो अचल और स्तंभित हो गई थी। जैसे फिर से सजिव हो गई है। गोया जैसे नींद से जाग गई हो। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि इसका अर्थ है कि अब कुछ ही क्षणों में युद्ध आरंभ होगा।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तुमने अपने गांडिव की टंकार से युद्ध की घोषणा तो कर दी है। अब मुझे आज्ञा दो की मैं क्या करूं? इस पर अर्जुन कहता है कि केशव! मैं तुम्हें आज्ञा दूं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है इस युद्ध में मैं तुम्हारा सारथी हूं।
फिर अर्जुन कहता है कि हे केशव मुझे मेरे उसी स्थान पर ले चलो। तब श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच से रथ को निकालकर पांडव पक्ष की ओर ले जाकर खड़ा कर देते हैं। इसके पश्चात सभी युधिष्ठिर द्वारा युद्धघोष का इंतजार करने लगते हैं। परंतु धर्मराज युधिष्ठिर अपने हथियार रथ पर ही रखकर हाथ जोड़ते हुए पैदल ही कौरव सेना की और कदम बढ़ाने लगते हैं। यह देखकर संजय धृतराष्ट्र से कहता है कि महाराज यह तो विचित्र ही हो रहा है धर्मराज युधिष्ठिर ने हथियार रख दिए हैं और हाथजोड़े भीष्म पितामह की ओर बढ़ रहे हैं। यह सुनकर धृतराष्ट्र प्रसन्न होकर कहते हैं कि युधिष्ठिर युद्ध से डर गया है क्योंकि वह जानता है कि कौरवों की सेना उनकी सेना से कहीं अधिक शक्तिशाल है।
यह देखकर अर्जुन, भीम, नुकुल और सहदेव सभी युधिष्ठिर का रास्ता रोककर कहते हैं कि बड़े भैया आप ये क्या कर रहे हैं? क्षत्रिय का धर्म है युद्ध करना और आप हथियार रखकर कहां जा रहे हैं, परंतु युधिष्ठिर किसी की कुछ नहीं सुनते हैं और वे आगे बढ़ते ही रहते हैं और आगे चले जाते हैं। तब श्रीकृष्ण आकर पांडवों से कहते हैं कि धर्मराज युधिष्ठर अपना धर्म निभाने जा रहे हैं आप सभी निश्चिंत रहें।
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