क्या आप जानते हैं पूजा करना चाहिए या नहीं? ये बातें मालूम होनी चाहिए आपको
अगर आप रोज पूजा करते हैं और आपका मन अशांत रहता है तो इसका मतलब है कि आप कि पूजा-पाठ में कहीं कुछ गलत हो रहा है।
सोमनाथ के मंदिर के होने का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है इससे यह सिद्ध होता है भारत में मंदिर परंपरा कितनी पुरानी रही है। इतिहासकार मानते हैं कि ऋग्वेद की रचना 7000 से 1500 ईसा पूर्व हई थी अर्थात आज से 9 हजार वर्ष पूर्व। मतलब यह कि तभी से पूजा कर प्रचलन है। राम के काल में सीता द्वारा गौरी पूजा, महाभारत के काल में रुक्मिणी द्वारा गौरी पूजन और अर्जुन द्वारा युद्ध के पूर्व दुर्गा पूजा करना इस बात का सबूत है कि उस काल में देवी-देवताओं की पूजा का महत्व था और उनके घर से अलग पूजास्थल होते थे। शिवलिंग की पूजा का प्रचलन सबसे प्राचीन है। रामायण काल में भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की थी। शिवलिंग को उस काल में आदिवासी और वनवासी लोग पूजते थे। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन बढ़ने लगा।
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गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मेरे भक्त को मेरा रूप चराचर किसी भी वस्तु में भी दिखाई देता है तो वह मन में मेरा ही ध्यान करके उसे पूजता है। मेरे रूप या अवतारों की मूर्तियां बनाकर भी पूजा की जाती है। जिन्हें इन मूर्तियों में मेरा विशाल रूप दिखाई नहीं देता वो मेरे अनादि और अनंत रूप की पूजा करते हैं। दोनों ही तरह के भक्त भक्ति के रास्ते पर चलते चलते मेरे परमधाम की ओर बढ़ते हैं।
पूजा को नित्यकर्म में शामिल किया गया है। पूजा करने के पुराणिकों ने अनेक मनमाने तरीके विकसित किए हैं। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूप, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। पूजा में सभी देवों की स्तुति की जाती है। अत: पूजा-आरती के भी नियम हैं। नियम से की गई पूजा के लाभ मिलते हैं।
12 बजे के पूर्व पूजा और आरती समाप्त हो जाना चाहिए। दिन के 12 से 4 बजे के बीच पूजा या आरती नहीं की जाती है। रात्रि के सभी कर्म वेदों द्वारा निषेध माने गए हैं, जो लोग रात्रि को पूजा या यज्ञ करते हैं उनके उद्देश्य अलग रहते हैं। पूजा और यज्ञ का सात्विक रूप ही मान्य है।
आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘नीराजन’ के नाम से भी पुकारा गया है। आराध्य के पूजन में जो कुछ भी त्रुटि या कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति आरती करने से हो जाती है। साधारणतया 5 बत्तियों वाले दीप से आरती की जाती है जिसे ‘पंचप्रदीप’ कहा जाता है। इसके अलावा 1, 7 अथवा विषम संख्या के अधिक दीप जलाकर भी आरती करने का विधान है। विशेष : दीपक की लौ की दिशा पूर्व की ओर रखने से आयु वृद्धि, पश्चिम की ओर दुःख वृद्धि, दक्षिण की ओर हानि और उत्तर की ओर रखने से धनलाभ होता है। लौ दीपक के मध्य लगाना शुभ फलदायी है। इसी प्रकार दीपक के चारों ओर लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है।
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