गुमनामी के अंधेरे में जी रहे हैं शिल्पकार
बेजान धातु को तराश कर जीवांत कर देने वाली कारीगरी.....। कई पीढ़ियों से चली आ रही शिल्पकारी कला को अमरत्व का वरदान देती पुस्तैनी विरासत और बेबस हालातों के सामने घुटने टेकने को मजबूर कारीगर....।
बेजान धातु को तराश कर जीवांत कर देने वाली कारीगरी…..। कई पीढ़ियों से चली आ रही शिल्पकारी कला को अमरत्व का वरदान देती पुस्तैनी विरासत और बेबस हालातों के सामने घुटने टेकने को मजबूर कारीगर….। ये हकीकत से सराबोर दांस्ता हैं बुंदेली शिल्पकारों की जो की सरकारी अनदेखी के चलते पुस्तैनी व्यवसाय को छोड़ने पर विवश हो चलें हैं।
उत्तर प्रदेश के महोबा जनपद के श्रीनगर कस्बे में सदियों से चले आ रहे मूर्तिकला के व्यवसाय पर काले अंधेरे बादल मंडरातें नजर आ रहें है। खस्ता हाल हो चुके इन शिल्पकारों की न तो कोई सुध प्रशासन स्तर से ली जा रही है और न ही शासन से आने वाली योजनाओं का लाभ इन शिल्पकारों तक पहुच पा रहा है।
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केंद्र और राज्य सरकार द्वारा भले ही कारीगरी और शिल्पकारी कला को जीवांत रखने के लिए अनेकों योजनाए चलाई जा रहीं हैं तो वहीं दूसरी तरफ जिले के जिम्मेदार अफसरानों की लचर नीतियों के चलते अब ये पुस्तैनी परम्परां अपने आखिरी पायदान पर दम तोड़ती नजर आ रही है। सदियों पूर्व राजा मोहन सिंह के टकसाल पर सोने चांदी के सिक्कों पर नक्काशी करने वाले इनके पूर्वजों से इन्हें विरासत में शिल्पकारी का हुनर मिला है।
समय गुजरने के साथ ही ये हुनर एक पीढ़ी से दूसरी ….
राजा मोहन सिंह के राज पाठ खत्म होने के साथ ही इनके पूर्वजों ने इस शिल्पकारी की कला को अपनी रोजी रोटी का जरिया बना लिया और समय गुजरने के साथ ही ये हुनर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक धरोहर के रूप में पहुचता रहा है। सोने और चांदी की मोहरों को अंतिम रूप देकर उन्हे खुबसूरती देने वाले इनके पूर्वजों से शिल्पकारी की ये प्रथा आज तक चली आ रही है।
मंदिर के पुजारी और आलीशान नक्काशीदार मूर्तियों का शौक रखने वाले व्ंयक्तियों द्वारा इन मूर्तियों को विषेष डिमांड पर आर्डर देकर बनवाया जाता है। जैसी जिसकी डिमांड वैसा ही खर्च मूर्तियों पर आता है अमूमन 900 प्रति किलोग्राम का खर्च लेकर आई हुई डिमांड को पूरा किया जाता है।
बेजान धातु को मूर्ति की शक्ल सूरत मिल पाती है
गर्म पीतल को पिघलाने की प्रकिया के साथ घातु को तराश कर नक्काशी के काम की शुरूआत की जाती है। कई दिनों की जी तोड़ मेहनत करने के बाद बेजान धातु को मूर्ति की शक्ल सूरत मिल पाती है और उसके बाद ही मूर्तियों सुनिश्चित स्थान तक पहुचा दिया जाता है।
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उत्तर प्रदेश के महोबा जनपद श्रीनगर कस्बे में वर्षो से चली आ रही मूर्ति कारीगरी का काम अब बंद होनी की कगार में जा पहुचा है। जी तोड़ मेहनत और खून पसीना एक करने के बाद भी मूर्तियों की वाजिब कीमत नही मिल पा रही है। अपने अंतिम पड़ाव में जा पहुची इस कला से न तो युवा वर्ग जुड़ना चाहता है और न ही इस कला को जीविका का साधन बनाना चाहता है।
अगर कहे तो सरकार उपेक्षा का दंश झेल रहे
बदत्तर हालात में पहुच चुकी इस कारीगरी के ठप्प पड़ जाने की सूरत में जहां कुछ शिल्पकार मेहनत मजदुरी करके अपने परिवार को दो वख्त की रोजी रोटी दे पातें हैं वहीं कुछ कारीगरों द्वारा खेती बाड़ी का सहारा लेकर अपने परिवार का पेट पाला जाता है। कुल मिला कर अगर कहे तो सरकार उपेक्षा का दंश झेल रहे ये शिल्पकार बेबस हालातों के आगें घुटने टेकने को मजबूर हो चलें हैं
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