इंसानो द्वारा बनाये गए नर्क के दरवाजें की जाने कहानी

70 प्रतिशत इलाका इसी रेगिस्तान के क्षेत्र में आता है. काराकुम दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तानों में से है, जहां लगभग 10 सालों में एकाध बार ही बारिश होती है।

आज हम बात करने जा रहे एक ऐसे दरवाजे की जिसे नर्क का दरवाजा कहा जाता है जी हाँ आपने सही सुना नर्क का दरवाजा जिसे गेट वे टू हेल भी कहते हैं अब आप अपने दुश्मनो को वहाँ जरूर भेजना चाहा रहे होंगे,जिसे इंसानो ने ही बनाया है लेकिन इससे पहले आईये जानते हैं इसके इतिहास के बारे में।

तुर्कमेनिस्तान के काराकुम रेगिस्तान में क्रेटर नाम का एक गड्ढा है जिसमें पिछले 5 दशक से आग धधक रही है.और इसे ही पुरे दुनिया में नर्क का दरवाजा कहा जाता है। ये गड्ढा दरअसल एक गैस क्रेटर है, जो मिथेन गैस की वजह से जल रहा है. और अब अपने रहस्य के चलते ये जगह सैलानियों के लिए एक बड़ा आकर्षण केंद्र बन गया है आपको बता दें की ये गड्ढ़ा 69 मीटर चौड़ा और 30 मीटर गहरा है देश का लगभग 70 प्रतिशत इलाका इसी रेगिस्तान के क्षेत्र में आता है. काराकुम दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तानों में से है, जहां लगभग 10 सालों में एकाध बार ही बारिश होती है।

इंसानो द्वारा बनाये गए इस गड्ढे की कहानी ये हैं पहले तुर्केमेनिस्तान सोवियत संघ का हिस्सा था. उसी दौरान सत्तर की शुरुआत में यहां प्राकृतिक गैस के एक बड़े भंडार का पता लगा. तब रूस दूसरे विश्व युद्ध के बाद आई आर्थिक कमजोरी से जूझ रहा था और इसे दूर करने में गैस का भंडार काफी मदद कर सकता था।

प्राकृतिक गैस निकालने की होड़ में साल 1971 में यहां बड़ा विस्फोट हो गया. इसी विस्फोट की वजह से नर्क का दरवाजा कहा जाने वाला गड्ढा बना गया , जिसे डोर टू हेल भी कहते हैं. हादसे में मीथेन गैस को फैलने से रोकने के लिए वैज्ञानिकों ने गड्ढे के सिरे पर आग लगा दी. वैज्ञानिकों का अनुमान था कि आग गैस के खत्म होने के साथ ही बुझ जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. आज पूरे 50 साल बीतने के बाद भी आग वैसे ही जल रही है. इसका कारण समझने की बहुत कोशिशें हुईं अभी तक इसके कारण की पुष्टि नहीं कर सका. इससे जलने पर निकलने वाली मीथेन और सल्फर की गंध काफी दूर तक फैली रहती है. ये आग इतनी भयानक है कि इसकी लपटें कई मीटर की ऊंचाई तक उठती रहती हैं. साथ ही गड्ढे के भीतर खौलती हुई मिट्टी दिखती है।

 कुछ ऐसा ही हाल पेनसिल्वेनिया के शहर सेंट्रेलिया का है. यहां सड़कों पर दरारें पड़ी हुई हैं और सुनसान घरों में बहुत सी चीजें जली हुई दिखती हैं. विदेशी सैलानी यहां घूमने आते रहते हैं लेकिन शहर कई जगह-जगह बोर्ड लगे हुए हैं जो खतरनाक जगहों के बारे में लोगों को बताते हैं. एक समय में चहल-पहल से भरे इस शहर 1962 में कुछ ऐसा हुआ है, जिसने पूरे शहर को जलाकर खाक कर दिया।

दरअसल साल 1850 में सेंट्रेलिया शहर में कोयले की खदानों का पता चला और जल्दी ही यहां पर 2700 लोग रहने लगे. इनमें से अधिकतर खदानकर्मी और उनके परिवार थे. साल 1930 में आए ग्रेट डिप्रेशन का असर सबसे ज्यादा कोयले की खदानों पर पड़ा, इसके बाद भी शहर आराम से चलता रहा. बाद में शहर के नीचे भयंकर आग लगी, जिसने इस खुशाल शहर को जड़ से उजाड़ कर रख दिया .आग लगने का असल कारण आज तक पता नहीं चल सका।
कई दुर्घटनाओं के बाद साल 1992 में शहर के लोगों को तत्कालीन सरकार ने बाहर बसाया. इससे पहले सरकार ने पूरा हिसाब लगाया कि अगर आग बुझाने की पूरी कोशिश की जाए तो कितने खर्च आएगा और . ये आंकड़ा खरबों में गया था जिसके चलते सरकार ने वहां के लोगों को आसपास के स्थानों में बसा दिया. शहर का पिन कोड भी नष्ट कर दिया गया, ताकि गलती से भी वहां कोई भटकता हुआ न चला जाए।

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