नेता जी ! चुनाव के लिए मुस्लिम वोटर्स को ठगने की सोच रहे…आप बेवकूफ हो !
अब मुस्लिम मतदाता सियासी तौर पर पहले से ज्यादा समझदार हो चुका है। अब उसे न नेता और न ही उलेमाओं बेवकूफ बना सकते हैं।
लखनऊ : हर विधानसभा चुनाव से पहले यूपी में जो सबसे बड़ा सवाल होता है वो इस बार भी है यानि कि मुस्लिम वोटर किधर जाएगा? सूबे की राजनीति में मुसलमानों के अधिकतर नेता गैर मुस्लिम रहे हैं। मुसलमानों में से कोई बड़ा नेता शायद ही बन सका हो। आज़ादी के बाद से मुस्लिम राजनीति में पेशेवर मुस्लिम राजनेताओं और उलेमाओं का दखल रहा है। दलों के प्रति इनकी श्रद्धा लाभ-हानि के समीकरणों के साथ बदलती रही।
पिछले चुनावों में मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न को देखने के बाद आपको हमारी बात पर यकीन भी हो जाएगा। कभी भाजपा का डर महसूस किया, तो कभी कांग्रेस के वादों में सच्चाई देखी।
आपको मुलायम-कल्याण की दोस्ती का वो समय याद है! जब मुस्लिम वोटर सपा से दूर और बसपा क पास चला गया था। इसके बाद मुलायम ने जब माफ़ी मांगी तो मुसलामानों ने एक बार फिर उन्हीं पर एतबार जताया। इसका नतीजा ये हुआ कि सूबे में अखिलेश यादव की बहुमत वाली सरकार बनी। वहीँ जब मुस्लिम समाज को पीएम मोदी के नेतृत्व में विकास की आस दिखी तो बाबरी ध्वंस और गुजरात दंगे के साये से निकलकर उन्होंने बीजेपी को वोट किया।
कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट मुस्लिम राजनीति में नई बिंदु के तौर पर स्थापित हो चुकी है। वर्ष 2007 में हुए विधान सभा चुनाव में बसपा सरकार के दौरान दंगा न होने और अयोध्या विवाद के समय भी राज्य में शांति बने रहने के बावजूद कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर वोटिंग न कर मुस्लिम मतदाताओं ने मुलायम के 18 प्रतिशत आरक्षण दिलाने और आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार निर्दोषों की रिहाई के भरोसे पर वोट दिया। पिछले चुनाव में बीजेपी को वोट देने के बाद इस बार वो अपने को ठगा देख रहा है और ऐसे में इस चुनाव को मुसलमान अपनी आकांक्षाओं को जाहिर करने के मौके के रूप में देख रहा है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में 3 राजनीतिक दल एक सिस्टम दिखने लगा है।
चुनाव में में मुस्लिम नेतृत्व पहले खुद की सोचता है बाद में कौम की। नब्बे के दशक से यूपी और पूरे देश में मुस्लिम समाज की राजनीतिक आकांक्षाएं बदलने लगी हैं। लेकिन यह बदलाव काफी धीमा है। इससे पहले सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आए बदलाव ने नई भूमि तैयार की। पहली बार मुसलमान समाज ने सच्चर की रिपोर्ट से हां में हां मिलाते हुए माना कि मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है।
मजे की बात ये है कि सच्चर की रिपोर्ट ने मुस्लिम मध्यमवर्ग को अपनी बादशाही अतीत को झटक कर मौजूदा हकीकत के आंगन में आकर सोचने के लिए मजबूर किया था। इसके बाद वो हक और परवरिश में बदलाव का रास्ता खोजने लगा। ये और ही बात है कि अभी भी मुस्लिम नेतृत्व के पुराने बरगद ही लहलहाते दिख रहे हैं। कोई नया नेता फिलहाल नजर नहीं आता कुछ ओवैसी को नेता मान सकते हैं लेकिन बड़ा मुस्लिम तबका उसे अपना नेता नहीं बीजेपी का एजेंट ही मानता है। आज़म खान कि बात करें तो उनका भी कोई विशेष जोर नहीं अपने समाज में।
मुस्लिम रहनुमाई या ये कहा जाए कि वोटों की ठेकेदारी उन धार्मिक नेताओं के हाथ में रही है जो तमाम दलों से अपने संबंधों या हैसियत हासिल करने के बदले फ़तवा तक जारी कर देते थे कि किसे वोट देना है या नहीं। लेकिन पिछले दो लोकसभा चुनाव और एक विधानसभा चुनाव को देखने पर नजर आता है कि मुस्लिम वोटर ने इनसे मुक्ति पा ली है।
गौर से देखें तो नेता मुस्लिम राजनीति के प्रतीक कम पेशेवर अधिक नजर आते हैं। जो समय और कद के हिसाब से पार्टियों को बदलते हुए मुस्लिम नेता बने हैं। लेकिन फिर भी मुस्लिम राजनीति की नई कोंपले खिलने लगी हैं। जिनमे कोई बड़ा नाम तो नहीं है लेकिन से जीत रहे हैं। वर्ष 2007 के विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 56 थी, तो 1991 में 17 थी। इसका सीधा कारण है कि मुस्लिम मतदाता अब बदल रहा है। उसके बीच नए और पुराने मतदाता के हिसाब से विभाजन दिखने लगा है।
यही कारण रहा था जब अखिलेश ने सपा का पिछला चुनावी घोषणापत्र तैयार किया तो उसमें जहां मुस्लिम लड़कियों के लिए 30 हज़ार, गिरफ्तार निर्दोष मुस्लिम युवकों की रिहाई, मुस्लिम बाहुल्य जिलों के लिए सेक्टोरल डेवलपमेंट स्कीम के साथ ही कब्रिस्तान की चारदीवारी के लिए बजट देने की बात कही थी इसका नतीजा ये हुआ कि सपा को प्रचंड बहुत मिला। इस बार भी सपा के चुनावी पत्र में ऐसा कुछ देखने को मिल सकता है।
सूबे की सियासत में मुसलमानों की अनदेखी कर चुनाव नहीं जीता जा सकता। ये बात सत्ताधारी और विपक्ष दोनों अच्छे से जानते हैं। ऐसे में दोनों के एजेंडे में मुस्लिम शामिल हैं। जबकि अब मुस्लिम मतदाता सियासी तौर पर पहले से ज्यादा समझदार हो चुका है। अब उसे न नेता और न ही उलेमाओं बेवकूफ बना सकते हैं।
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