आखिर कितना लंबा जाएगा ये किसान आंदोलन? यूपी चुनाव में कितना असर डालेगा किसान महापंचायत! पढ़ें स्पेशल रिपोर्ट

किसानों के आंदोलन के 10 महीने पूरे होने को हैं लेकिन अभी तक इसका कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है। किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं। किसानों की दो टूक मांग है। किसान सरकार से कह रहे हैं कि तीनों कृषि कानून रद्द किए जाएं।

यूपी विधानसभा चुनावों में 6 महीने से भी कम का वक्त रह गया है।इस बीच 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसान पंचायत में उमड़ी भीड़ ने यूपी के चुनावी माहौल की गर्मी और बढ़ा दी है। बताया जा रहा है कि इस पंचायत में करीब 5 लाख लोग जुटे थे। पंचायत के मंच से भले ही सियासी दलों को दूर रखा गया मगर इस पंचायत के सियासत पर पड़ने वाले असर से किसी को इनकार नहीं होगा। किसानों के आंदोलन के 10 महीने पूरे होने को हैं लेकिन अभी तक इसका कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है। किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं। किसानों की दो टूक मांग है। किसान सरकार से कह रहे हैं कि तीनों कृषि कानून रद्द किए जाएं। MSP को कानून बनाया जाए और बिजली संशोधन बिल 2020 को वापस लिया जाए।

ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ी सरगर्मियां

किसानों का मुद्दा उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति की धुरी पर नाच रहा है, किसान नेता भले ही चुनाव के नाम पर बचते रहे हों, मगर किसानों के नाम पर सभी दलों ने अपने अपने तरकश को संभाल लिया है, एक बीजेपी को छोड़ दिया जाए तो विपक्षी दलों ने किसानों के कंधों पर रखकर बीजेपी पर निशाना साधना शुरु कर दिया है, अपने अपने सम्मेलन हो रहे हैं और इन सम्मेलनों का सार यही है कि यूपी में आगे बड़ी लड़ाई है।

अब देखना होगा कि यूपी चुनाव में किसान आंदोलन का कितना असर पड़ेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में तो अभी से इसकी तपिश दिखाई दे रही है। एक तरफ भाजपा नेताओं का उनके अपने ही क्षेत्रों में विरोध शुरू हो गया है। दूसरी ओर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत पर हमले से किसान और अधिक उग्र हो गए हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में रविवार को जिस तरह से किसानों का सैलाब उमड़ा है, उसे राजनीतिक दल भी अभूतपूर्व मान रहे हैं। किसानों ने अपनी ताकत की जो नुमाइश की है, उसे देखते हुए राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केंद्र सरकार को बातचीत का दरवाजा खोलने पर अब फिर से मजबूर होना पड़ सकता है।

“ये लड़ाई कितनी लंबी चलेगी कहना मुश्किल”

किसानों के तेवर देखकर सरकार को ये अहसास हो चुका है कि वे तीनों कानून वापस लेने के सिवा और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं, तो वहीं सरकार किसी भी सूरत में इन्हें वापस लेकर सियासी शतरंज की बाज़ी हारकर कमजोर नहीं पड़ना चाहती है. इसलिये सरकार और किसानों में बीच का कोई रास्ता निकलना लगभग असंभव नजर आ रहा है. पिछले नौ महीने में ये आरपार की ऐसी लड़ाई बन चुकी है जिसे ख़त्म करने के लिए सफेद झंडा दिखाने की जवाबदेही अब सरकार पर आ चुकी है। लेकिन सरकार को लगता है कि किसान उन्हें ब्लैकमेल कर रहे हैं, इसलिये वह उनके आगे भला क्यों झुके। इसी जिद के चलते दोनों के बीच कड़वाहट इस कदर बढ़ चुकी है कि फिलहाल कोई नहीं जानता कि ये लड़ाई कितनी लंबी चलेगी और इसमें फतह किसकी होगी। शायद यही वजह है कि राकेश टिकैत ने आज केंद्र सरकार को एक तरह का अल्टीमेटम देते हुए दो टूक कहा कि, “किसान आंदोलन तब तक चलेगा, जब तक भारत सरकार चलवाएगी। जब तक वे बात नहीं मानेंगे ,आंदोलन चलता रहेगा. जब सरकार बातचीत करेगी तो हम करेंगे। देश में आज़ादी की लड़ाई 90 साल तक चली, यह आंदोलन कितने साल चलेगा, हमें तो जानकारी नहीं है।”

महापंचायत के जरिये किसानों ने बीजेपी के खिलाफ मिशन यूपी का आगाज़ कर दिया है

किसानों की इस कदर एकजुटता की तस्वीरें सरकार के लिए इसलिये भी चिंता की बात है क्योंकि अगले छह महीने के भीतर उत्तरप्रदेश में चुनाव हैं और पश्चिमी यूपी ही किसान आंदोलन का मुख्य गढ़ है। ये वही मुजफ्फरनगर है जहां 2013 में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगों के असर ने 2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने की जमीन तैयार कर दी थी। मुजफ्फरनगर की आंच से सुदूर पूर्व का बलिया भी प्रभावित हुआ था और वोटों के ध्रुवीकरण ने पहले नरेंद्र मोदी और फिर योगी आदित्यनाथ को सत्ता के शिखर पर पहुँचा दिया।लेकिन इस बार मुजफ्फरनगर की आंच उलटी दिशा में है और सियासत के जानकार इसका चुनावी असर भापने में लगे हुए हैं।

आने वाले दिनों के लिए किसान संगठनों ने जो कार्यक्रम जारी किया है, उनमें काफी हिस्से पूर्वी उत्तर प्रदेश के भी हैं, जहां इस तरह की पंचायतें होंगी। इस महापंचायत के जरिये किसानों ने बीजेपी के खिलाफ मिशन यूपी का आगाज़ कर दिया है और पूरे आंदोलन ने अब खुलकर सियासी शक्ल भी ले ली है. टिकैत ने ऐलानिया कह भी दिया कि जो सरकार हमारे खिलाफ काम करेगी, हम उसके खिलाफ काम करेंगे. यही कारण है कि आज वहां विपक्षी पार्टियों के बैनर-पोस्टर भी बड़ी संख्या में नज़र आये. हालांकि टिकैत ने इसे सिर्फ मिशन यूपी की बजाय देश से जोड़ते हुए कहा कि ‘संविधान खतरे में है और अब हमें देश बचाना है क्योंकि सरकार हर चीज बेच रही है और इससे साढ़े चार लाख लोग बेरोजगार हो जाएंगे।” उनके इस बयान से साफ है कि किसान आंदोलन के जरिये अब समाज के विभिन्न वर्गों में भी सरकार की नीतियों के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा है।

आरएलडी के लिए संजीवनी साबित हो रही किसान आंदोलन

किसान आंदोलन के तेज होने के बाद लंबे समय से सियासत के हाशिये पर पड़ी राष्ट्रीय लोकदल भी सक्रिय हो गया। उसने ये दावा करना शुरू कर दिया है कि किसानों ने जब से उसे छोड़ा किसानों के हित भी प्रभावित हुई। रालोद की ये कोशिश असर भी दिखा रही है और पश्चिमी यूपी में उसका खोया वोट बैंक भी वापस आता दिखाई दे रहा है। बीते कुछ चनावों से रालोद का चुनावी गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ बना हुआ है और ऐसे माहौल में इस गठबंधन के लिए चुनावी फायदे से इनकार नहीं किया जा सकता। आरएलडी के लिए ये एक संजीवनी का काम कर रही है। फूल बरसाने की जो मंशा जयंत चौधरी ने जाहिर की, उसका मकसद यही था कि हम किसानों के साथ हद से ज्यादा लगे हुए हैं, उनकी हिमायत में हैं और उनका हम स्वागत करना चाहते हैं। सपा के साथ आरएलडी का गठजोड़ है। ऐसा दिख रहा है कि चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी जिसका जाटव समाज में प्रभाव है वह भी उनके साथ आ चुकी है। पश्चिमी यूपी और रुहेलखंड के कई जिलों में सक्रिय महान दल जिसके साथ मौर्य, काछी, कुशवाहा, कछवाहा, शाक्य, सैनी और महतो जैसी जातियां जुड़ी हुई हैं। ये छोटी खेती-किसानी करने वाले समुदाय हैं। ये सब एक प्लेटफॉर्म पर या तो हैं या आने वाले हैं। विपक्षी गठबंधन को इसने निश्चित रूप से मजबूत किया है और बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इस आंदोलन को पश्चिम से निकालकर पूरब और मध्य यूपी के इलाकों में लाने की कवायद शुरू होगी।’

आंदोलन यूपी तक ही रहेगा या बाहर भी जाएगा!

किसान महापंचायत में यूपी के साथ-साथ पंजाब-हरियाणा और उत्तराखंड के किसान शामिल हो रहे हैं। इनमें से तीन राज्यों यूपी, पंजाब और उत्तराखंड में अगले साल चुनाव हैं। अब ये देखना होगा कि ये किसान महापंचायत कितनी सफल होती है। क्योंकि वेस्ट यूपी में गठवाला खाप है, बलियान खाप है, बत्तीसी खाप है, मलिक खाप है, क्या ये सारे खाप एक मंच पर आ रहे हैं। दूसरा क्या मुसलमान भी इसमें शामिल हो रहा है? राकेश टिकैत और नरेश टिकैत के अलावा महापंचायत में बोलने वाले नेताओं का तेवर (टोन) क्या रहता है ये अहम होगा। बाकी खाप के नेता कितना बीजेपी के खिलाफ बोलते हैं। वहां पर कोई मतैक्य उभरता है और एक सुर में किसी देशव्यापी आंदोलन की शुरुआत की घोषणा होती है और बड़ी संख्या में किसान जुट जाते हैं तो इसका निश्चित रूप से बीजेपी पर दबाव पड़ेगा। क्योंकि इसका संदेश दूर-दूर तक पश्चिमी यूपी से पूर्वी यूपी में भी जाएगा। यूपी ही नहीं यूपी के बाहर भी जाएगा।

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