सचल पालना गृह योजना – सत्ता ,ब्यूरोक्रेसी,एनजीओ के भ्रष्ट गठजोड़ की अनंत कथा…

राजनीति एक काजल कोठरी है जिसमे दाग लगना लाजमी है , लेकिन सत्ताधीश माननीयों को यहां “दाग अच्छे हैं” की तरह दाग लगना अच्छा भी लगता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में कितनी सरकारें आईं और गईं, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का दिया गया , लेकिन भ्रष्टाचार का “दीमक” व्यवस्था को लगातार खोखला किये जा है । उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार का पहला वादा ही “भ्रष्टाचारमुक्त सुशासन” का था लेकिन सत्तारूढ़ दल के माननीय इससे बहुत दूर हैं।
ताजा मामला बहुचर्चित सचल पालना गृह घोटाले का है , जिस की जांच केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) कर रही है. सीबीआई ने इस मामले में अब जांच तेज कर दी है। बीती 9/10 जून यानी मंगलवार की रात लखनऊ में सीबीआई की टीम ने सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के विधायक के आवास पर छापेमारी की। सीबीआई के अधिकारियों ने लखनऊ उत्तरी सीट से बीजेपी विधायक नीरज बोरा के घर छापेमारी के साथ ही उनके दो भाइयों से इस मामले में पूछताछ की। इस घोटाले में विधायक की संस्था का भी नाम आ रहा है, जिसके बाद सीबीआई ने यह जांच की। उनके NGO से जुड़े दस्तावेज भी खंगाले गये हैं। बच्चों की देखभाल से जुड़ी इस योजना में भारी धांधली की बात सामने आने के बाद इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी। इस स्कैम में कई नेताओं और अधिकारियों के करीबियों के एनजीओ के नाम सामने आ रहे हैं, बताया जा रहा है कि इस स्कैम में विधायक के एनजीओ की संलिप्तता की जानकारी सीबीआई को मिली थी। इसके बाद सीबीआई ने विधायक के आवास पर छापेमारी कर उनके एनजीओ के दस्तावेज खंगाले। सीबीआई ने सोमवार को भी विधायक के आवास पर रेड की थी। विधायक के दो भाइयों को पूछताछ के लिए जांच एजेंसी के अधिकारियों ने ऑफिस बुलाया था। लेकिन मीडिया में खबरें आने के बाद विधायक नीरज बोरा इससे इनकार करते रहे ,स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने एक प्रेस नोट जारी किया।

यहां इस पूरे मामले को जानना जरूरी है कि आखिर इस घोटाले की परतें विधायक जी पर ही क्यों खुलती हैं।

क्रमवार समझिये कि क्या थी सचल पालन गृह योजना..

-यूपी में श्रमिकों के बच्चों के लिए पालना गृह बनाये जाने थे
-इस योजना के तहत श्रमिकों के बच्चों के शारीरिक विकास, मनोरंजन व अल्पावास के दौरान भोजन उपलब्ध कराना था
-बच्चों की बीमारी यानि 0 से 06 वर्ष के बच्चों की देखभाल के लिए बनना था पालना गृह
-पालना गृह के निर्माण के लिए करोड़ों की धनराशि जारी की गई थी
-योजना का लाभ ज़रूरतमंदों को नहीं मिला लेकिन करोड़ों की धनराशि का भुगतान कर दिया गया। सीबीआई ने मामले में श्रमिक कल्याण बोर्ड, महिला कल्याण बोर्ड से दस्तावेज मांगे हैं।
-इस योजना का लाभ ऐसे पंजीकृत पुरूष निर्माण श्रमिकों के 0 से 6 वर्ष के बच्चों को भी मिलना था जिनके माता नहीं है

योजना के लाभ के लिए ये मापदंड तय किये गए थे..

-लाभार्थी श्रमिक के पास स्वयं का अथवा परिवार का पक्का आवास न हो।
-योजना में उन निर्माण कामगारों को लाभ दिया जाना था।
-जिनके पास स्वयं अथवा परिवार के नाम समुचित भूमि उपलब्ध हो।
-लाभार्थी द्वारा नियमित अंशदान जमा किया जा रहा हो।
-परिवार “एक इकाई” के रूप में लिया जाएगा।
-पंजीकृत निर्माण श्रमिकों को उक्त योजना का लाभ सम्पूर्ण जीवन काल में केवल एक बार ही दिए जाने की योजना थी।
-यदि पति और पत्नी दोनों पंजीकृत निर्माण श्रमिक है तो उक्त योजना का लाभ प्राथमिकता पर दिया जाना था।
-कार्य स्थान / निवास एक ही जिले में होने पर वरीयता प्रदान की जानी थी।
-केन्द्र या प्रदेश सरकार की आवास अथवा आवासीय सुविधा हेतु सहायता का लाभ पा चुके श्रमिक इस योजना के अंतर्गत पात्र नहीं थे।

इस योजना में यूपी में एनजीओ संचालकों और अफसरों ने मिल कर पालना गृह के 1100 करोड़ रूपए डकार लिए थे। इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने सीबीआई जाँच कराने का आदेश दिया था। जिस के बाद 22 जून 2017 को सीबीआई की लखनऊ यूनिट ने मुक़दमा दर्ज किया था।

इस जाँच में तत्कालीन प्रमुख सचिव महिला एवं बाल कल्याण,प्रमुख सचिव समाज कल्याण, प्रमुख सचिव श्रम समेत आधा दर्जन आईआईएस अफसर भी जाँच के घेरे में हैं।

इस धांधली में 250 से अधिक एनजीओ की भूमिका जांच के दायरे में है। पालना गृह में श्रमिकों को चिह्नित करने के बाद उनके पूरे परिवार का ब्यौरा ले श्रम विभाग में पंजीकरण कराने के बाद 25 बच्चों को रखे जाने की योजना थी। सीबीआई जांच में यह बात सामने आई थी कि कई एनजीओ ने पहले से ही पंजीकृत श्रमिकों के बच्चों के नाम रजिस्टर पर दर्ज कर लिए।

इस योजना में इस तरह हुयी बंदरबांट…

योजना के तहत यूपी में 15,000 सचल पालना गृह खुलने थे, जिसमें पहले चरण में तीन हजार पालना गृह खोले गए। न तो यह तय किया गया कि एक संस्था को कितने पालना गृह चलाने का काम दिया जाएगा और न ही यह तय हुआ कि किस जिले में कितने पालना गृह खोले जाएंगे।

इसी का फायदा उठा कर बोर्ड के अफसरों ने मनमाने तरीके से पालना गृह आवंटन में बंदरबांट की। इसी का उदाहरण था कि मीरजापुर में नौ पालना गृह खुले, जबकि लखनऊ के हिस्से में 213 पालना गृह आए। आठ जिलों में सौ से ज्यादा पालना गृह (213 लखनऊ में, 170 कानपुर शहर में, 153 बाराबंकी में, 142 गाजियाबाद में, 119 गोरखपुर में, 105 -105 रायबरेली और उन्नाव में और 106 गाजीपुर) चलाने का काम एनजीओ को दिया गया।

कुल 281 एनजीओ को तीन हजार पालना गृहों का काम दिया गया। इनमें 225 संस्थाओं को पांच से लेकर 40 तक पालना गृह आवंटित किए गए। लखनऊ में 150 से अधिक पालना गृहों का काम बीजेपी के विधायक नीरज बोरा नीरज बोरा की संस्थाओं को दे दिए गए।

एक पालना गृह चलाने के लिए संस्था को 2,70,890 रुपये सालाना दो किस्तों में दी जानी थी। नियमानुसार पालना गृह आवंटन के साथ ही संस्था को पहली छमाही किस्त यानी 1,35,445 रुपये की दे दी गई। हाई कोर्ट के आदेश पर गठित आईएएस रेणुका कुमार की अध्यक्षता में गठित समिति की जांच में इसमें वसूली का खुलासा हुआ। सूत्रों का कहना है कि संस्थाओं को दी गई पहली किस्त में से 40 फीसदी रकम की वसूली उप्र राज्य समाज कल्याण बोर्ड के अफसरों के इशारे पर की गई।

अफसरों ने इस वसूली का कथित तौर पर ठेका लखनऊ के उक्त बीजेपी नेता ( विधायक ) के दो साथियों को सौंपा था। इनमें एक व्यक्ति बीजेपी नेता की संस्था का समन्वयक भी है। रेकॉर्ड के मुताबिक प्रति पालना गृह के हिसाब से संस्थाओं को 2,70,890 रुपये (दो किस्तों में) दिए गए, जिसमें एक लाख के करीब प्रति पालना गृह से इन कथित ठेकेदारों से वसूला गया।

जांच में यह भी सामने आया कि दूसरी किस्त का भुगतान करने में बोर्ड को इतनी जल्दी थी कि उसके पदाधिकारियों और अधिकारियों ने संस्थाओं का न तो भौतिक निरीक्षण करवाया और न ही उनकी ओर से दाखिल दस्तावेज का सत्यापन किया गया।

कुल मिलाकर मजदूरों के बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल और शिक्षा की मंशा के साथ शुरू की गई सचल पालना गृह योजना सिर्फ स्वयं सेवी संस्थाओं (एनजीओ) और विभागीय अधिकारियों के लिए ही पौष्टिक साबित हुई। अब देखना होगा कि जांच किस दिशा में पहुँचती है, क्योंकि पालना गृह योजना चलवाने के लिए बिना मानक तय किए मनमाने तरीके से एनजीओ आवंटित किए गए और बिना पड़ताल के ही उन्हें दो छमाही किश्तों का भुगतान कर दिया गया। यह भी नहीं देखा गया कि पालना गृह खुले हैं या नहीं। हर किश्त के बाद करीब 40 फीसदी रकम संस्थाओं से वसूल कर अफसरों की जेब में पहुंचाई गई।

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